ढलता सूरज उतर आया था गिलास में, जिसे चाय में घोल के पी रहा था वो । जैसे नदी पीया करती थी, रोज़ शाम धीरे-धीरे ।
नदी किनारे घंटों बैठे रहते थे वो, सूरज ढलने के भी बहुत देर बाद तक ।
"गहरी बातें किया करो उल्लू, ऐसी अठन्नी चवन्नी बातें कर के कुछ नहीं होगा तुम्हारा । "
"ये नदी जितनी गहरी ? "
" हाँ गहरी, नदी से भी बहुत ज़्यादा । "
" गहरी बातों में भी डूब के मर पाता होगा कोई ? "
सिखा दिया है दिल्ली ने खोखली, गहरी बातें करना । उसकी याद आने पे महसूस होता है सर दर्द, थकान, जलन, प्यार, लालसा; सब कुछ एक साथ। याद आता है गाँव, पेड़, नदी, इमली, हँसी, रोना, प्यार, साइकिल, चाय... । और भी बहुत कुछ महसूस होता है । और हाँ बहुत ज़ोर से रोने का भी मन करता है कभी कभी ।
"अच्छा बड़े हो के क्या बनोगे तुम ? "
"लेखक बनूँगा, बहुत सारी आधी किताबें लिखूंगा । "
"आधी क्यूँ ?"
"पूरी कहानी मालूम किसे होती है, नाटक करते हैं लोग सब जानने का !"
अब पूरी कहानी जानने की हिम्मत भी कहाँ बची है । कहानी अधूरी थी तो थे सपने, डर, जोश, घबराहट, आशाएं.. । कुछ सपने अभी भी बाकी हैं, जिन्हें वो बड़ा सहेज के रखता है । रोज़ रात को निकालता है एक सपना, और उसके आँचल में सो लेता है चैन से कुछ देर । ताकी हिम्मत रहे सवेरे हकीकत का सामना करने की, कहानी का एक और पन्ना पलटने की ..........
Tuesday, February 10, 2009
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