Saturday, December 01, 2007

चाँद

कभी कभी जब थक जाता हूँ इस रोज़ की भागम-भाग से...
तो देख लेता हूँ चाँद को...
रोज़ आता है नाइट शिफ्ट पर...
महीने में सिर्फ एक दिन की छुट्टी..
और कभी शिक़ायत तक नहीं करता।

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फुटपाथ पर सोना आसान नहीं होता...
वो भी भूखे पेट..
आँखे मींचनी पड़ती हैं, नींद आये न आये..
वर्ना चाँद दिख जाता है...
कम्बख्त रोटी की याद दिला देता है ना।

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चाँदनी से बुन लेता हूँ अक्सर सपनों की एक चादर सी...
जिसे ओढ़ के सो लेता हूँ चैन से कुछ देर..
हर सवेरे आ जाता है मगर हकीक़त का सूरज...
और खो जाती है मेरी चादर...
उसकी रौशनी में कहीं।


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रात को सिगरेट जलाये अक़्सर चाँद को देखा करता हूँ ...
वो भी तो मेरी तरह कितना तन्हा है ...
जैसे अपनी ही चाँदनी में तलाश रहा हो किसी को ...
चाँदनी में साफ़ नज़र आता है मुझे उसकी तन्हाई का दर्द ...
मेरी सिगरेट का धुंँआ भी चाँद तक पंहुचता होगा क्या ?